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आज दिसता है हाल कुछ का कुछ क्‍यूँ न गुज़रे ख़याल कुछ का कुछ दिल-ए-बेदिल कूँ आज करती है शोख़ चंचल की चाल कुछ का कुछ...

मेरे दिल की राख कुरेद मत इसे मुस्कुरा के हवा न दे ये चराग़ फिर भी चराग़ है कहीं तेरा हाथ जला न दे नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं ये मोहब्बतों के चराग़ हैं इन्हें नफ़रतों की हवा न दे...

मंदिर गए मस्जिद गए पीरों फ़क़ीरों से मिले इक उस को पाने के लिए क्या क्या किया क्या क्या हुआ...

दूर जा कर क़रीब हो जितने हम से कब तुम क़रीब थे इतने अब न आओगे तुम न जाओगे वस्ल-ए-हिज्राँ बहम हुए कितने...

ऐ दिल-ए-अफ़सुर्दा वो असरार-ए-बातिन क्या हुए सोज़ की रातें कहाँ हैं साज़ के दिन क्या हुए आँसुओं की वो झड़ी वो ग़म का सामाँ क्या हुआ तेरा सावन का महीना चश्म-ए-गिर्यां क्या हुआ...

मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं...

अब इस बार पहली बार सिंह और पंडित की...

गुलज़ार है दाग़ों से यहाँ तन-बदन अपना कुछ ख़ौफ़ ख़िज़ाँ का नहीं रखता चमन अपना अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन-ए-उर्यां ये आब-ए-रवाँ का है नया पैरहन अपना...

यह पावस की सांझ रंगीली! फैला अपने हाथ सुनहले रवि, मानो जाने से पहले, लुटा रहा है बादल दल में अपनी निधि कंचन चमकीली!...

हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता कि ज्यूँ फाँदे में आते हैं हिरन आहिस्ता-आहिस्ता मिरा दिल मिस्ल परवाने के था मुश्ताक़ जलने का लगी उस शम्अ सूँ आख़िर लगन आहिस्ता-आहिस्ता...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...