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वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।...

मैं घास हूँ मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर...

मैं भी पलकों पे सजा लूँगा लहू की बूँदें तुम भी पा-बस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-हिना हो जाना...

शेर के पर्दे में मैं ने ग़म सुनाया है बहुत मरसिए ने दिल के मेरे भी रुलाया है बहुत बे-सबब आता नहीं अब दम-ब-दम आशिक़ को ग़श दर्द खींचा है निहायत रंज उठाया है बहुत...

कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे मौत की आँख भी खुल जाएगी आवाज़ तो दे मक़्सद-ए-इश्क़ हम-आहंगी-ए-जुज़्व-ओ-कुल है दर्द ही दर्द सही दिल बू-ए-दम-साज़ तो दे...

वह अमृतोपम मदिरा, प्रियतम, पिला, खिला दे मोह म्लान मन, अपलक लोचन, उन्मद यौवन, फूल ज्वाल दीपित हो मधुवन!...

मेरे उर में क्या अन्तर्हित है, यदि यह जिज्ञासा हो, दर्पण ले कर क्षण भर उस में मुख अपना, प्रिय! तुम लख लो! यदि उस में प्रतिबिम्बित हो मुख सस्मित, सानुराग, अम्लान, 'प्रेम-स्निग्ध है मेरा उर भी', तत्क्षण तुम यह लेना जान!...

उठ अब, ऐ मेरे महा प्राण! आत्म-कलह पर विश्व-सतह पर कूजित हो तेरा वेद गान!...

इस पेड में कल जहाँ पत्तियाँ थीं आज वहाँ फूल हैं जहाँ फूल थे...

मैथों मेरा बिरहा वड्डा मैं नित्त कूक रेहा मेरी झोली इको हौका इहदी झोल अथाह ।...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...