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भारत माता ग्रामवासिनी। खेतों में फैला है श्यामल धूल भरा मैला सा आँचल,...

समय के समर्थ अश्व मान लो आज बन्धु! चार पाँव ही चलो। छोड़ दो पहाड़ियाँ, उजाड़ियाँ तुम उठो कि गाँव-गाँव ही चलो।।...

उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला...

गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर...

मैं उसे खोजता हूँ जो आदमी है और अब भी आदमी है...

अंध मोह के बंध तोड़कर तु स्वच्छंद सुरा कर पान, क्षण भर मधु अधरों का मिलना, यह जीवन विधि का वरदान!...

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल- ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे!...

रंग रह सका रंग बदले। बन गयी बात, बात बिगड़े। रहा पानी पानी खो कर। मिटे सारे झगड़े, झगड़े।1।...

न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना...

बाज़ार है वो अब तक जिस में तुझे नचवाया दीवार है वो अब तक जिस में तुझे चुनवाया दीवार को आ तोड़ें बाज़ार को आ ढाएँ इंसाफ़ की ख़ातिर हम सड़कों पे निकल आएँ...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...