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मत छुओ इस झील को। कंकड़ी मारो नहीं, पत्तियाँ डारो नहीं, फूल मत बोरो। ...

द्वाभा के एकाकी प्रेमी, नीरव दिगन्त के शब्द मौन, रवि के जाते, स्थल पर आते कहते तुम तम से चमक--कौन?...

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन। जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥ पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन। जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥...

खेलत फाग सुहाग भरी, अनुरागहिं लालन क धरि कै । भारत कुंकुम, केसर की पिचकारिन में रंग को भरि कै ॥ गेरत लाल गुलाल लली, मनमोहन मौज मिटा करि कै । जात चली रसखान अली, मदमस्त मनी मन कों हरि कै ॥...

शायद उस सादा ने रखा है ख़त कि हमें मुत्तसिल लिक्खा है ख़त शौक़ से बात बढ़ गई थी बहुत दफ़्तर उस को लिखें हैं क्या है ख़त...

ज़िंदाँ में भी शोरिश न गई अपने जुनूँ की अब संग मुदावा है इस आशुफ़्ता-सरी का...

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का हुकुम शहर कोतवाल का... हर खासो-आम को आगह किया जाता है कि खबरदार रहें...

लेकिन फिर आऊँगा मैं भी लिये झोली में अग्निबीज धारेगी जिसको धरा ताप से होगी रत्नप्रसू।...

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन! जब रजनी के सूने क्षण में, तन-मन के एकाकीपन में कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,...

मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र आज आप एक बात मेरी मान जाइए...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...