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वाणी की दीनता अपनी मैं चीन्हता ! कहने में अर्थ नहीं कहना पर व्यर्थ नहीं...

यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत। स्वयं बिखरने वाली इसकी पंखड़ियाँ बिखराना मत॥...

बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में, प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में, प्रलय में मेरा पता पदचिन्‍ह जीवन में,...

'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़ दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़...

मोहब्बत का असर जाता कहाँ है हमारा दर्द-ए-सर जाता कहाँ है दिल-ए-बेताब सीने से निकल कर चला है तू किधर जाता कहाँ है...

रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए...

क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता अब तो चुप भी रहा नहीं जाता...

सुना तो है कि कभी बे-नियाज़-ए-ग़म थी हयात दिलाई याद निगाहों ने तेरी कब की बात ज़माँ मकाँ है फ़क़त मद्द-ओ-जज़्र-ए-जोश-ए-हयात बस एक मौज की हैं झलकियाँ क़रार-ओ-सबात...

तृषित! धर धीर मरु में। कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो। न रो यदि आज तरु में...

हम ने किस दिन तिरे कूचे में गुज़ारा न किया तू ने ऐ शोख़ मगर काम हमारा न किया एक ही बार हुईं वजह-ए-गिरफ़्तारी-ए-दिल इल्तिफ़ात उन की निगाहों ने दोबारा न किया...

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मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं...

हम-सर-ए-ज़ुल्फ़ क़द-ए-हूर-ए-शिमाइल ठहरा लाम का ख़ूब अलिफ़ मद्द-ए-मुक़ाबिल ठहरा दीदा-ए-तर से जो दामन में गिरा दिल ठहरा बहते बहते ये सफ़ीना लब-ए-साहिल ठहरा...

गुज़र को है बहुत औक़ात थोड़ी कि है ये तूल क़िस्सा रात थोड़ी जो मय ज़ाहिद ने माँगी मस्त बोले बहुत या क़िबला-ए-हाजात थोड़ी...

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़ न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़ है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़...

फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझ को रात भर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा कभी तकिया इधर रक्खा शिकस्त-ए-दिल का बाक़ी हम ने ग़ुर्बत में असर रखा लिखा अहल-ए-वतन को ख़त तो इक गोशा कतर रक्खा...

हम जो मस्त-ए-शराब होते हैं ज़र्रे से आफ़्ताब होते हैं है ख़राबात सोहबत-ए-वाइज़ लोग नाहक़ ख़राब होते हैं...

है ख़मोशी ज़ुल्म-ए-चर्ख़-ए-देव-पैकर का जवाब आदमी होता तो हम देते बराबर का जवाब जो बगूला दश्त-ए-ग़ुर्बत में उठा समझा ये मैं करती है तामीर दीवानी मिरे घर का जवाब...

उस की हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ ढूँडने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा कुछ ये मेहंदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ...

गले में हाथ थे शब उस परी से राहें थीं सहर हुई तो वो आँखें न वो निगाहें थीं निकल के चेहरे पे मैदान साफ़ ख़त ने किया कभी ये शहर था ऐसा कि बंद राहें थीं...

चुप भी हो बक रहा है क्या वाइज़ मग़्ज़ रिंदों का खा गया वाइज़ तेरे कहने से रिंद जाएँगे ये तो है ख़ाना-ए-ख़ुदा वाइज़...